दोस्तों आज हम बात करने वाले हैं, अमृतसर की पावन धरती पर जन्मे ऐसे धर्मात्मा, शांति के पुंज, दया, त्याग, और वैराग्य की मूरत की जो मानवता के कल्याण और धर्म की रक्षा के लिए कुर्बान हो गए। खुद का और अपने परिवार का जीवन संवारने के लिए तो हर कोई जीता है, परन्तु जब कोई निस्वार्थ भाव से दूसरों का कल्याण करने के लिए क़ुरबानी देता है तो फिर यह एक असाधारण बात है।
इन महापुरुष ने हिन्दू धर्म की रक्षा की खातिर हँसते हँसते अपना शीश भेंट कर दिया और उनके मुख से उफ़ तक न निकली। इन्होने मुग़लों के आगे अपना शीश न झुकाया, उनका धर्म स्वीकार न किया, और धर्म की रक्षा के लिए अपनी बात पर अडिग रहे। जी हाँ दोस्तों हम बात कर रहे हैं हिन्द की चादर कहे जाने वाले सिखों के नवें गुरु, गुरु तेग बहादुर जी की। आइये इस गुरु तेग बहादुर पर निबंध (guru teg bahadur essay in hindi) नामक लेख के माध्यम से हम उनके जीवन से जुड़े हुए कुछ छुए-अनछुए पहलुओं पर रोशनी डालते हैं। शुरू करते हैं गुरु तेग बहादुर पर निबंध (guru teg bahadur essay in hindi):
गुरु तेग बहादुर जी का बचपन (Guru Teg Bahadur Ji Ka Bachpan)
गुरु तेग बहादुर पर निबंध (guru teg bahadur essay in hindi) में सबसे पहले हम बात करेंगे उनके जन्म और बचपन से जुड़े सभी महत्वपूर्ण पहलुओं की ।
गुरु तेग बहादुर जी का जन्म (Guru Teg Bahadur Ji Ka Janm)
गुरु तेग बहादुर जी का जन्म 1 अप्रैल 1621 ई. को पंजाब के अमृतसर में हुआ था। उस दिन वैशाख कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि थी। उनके पिता सिखों के छठे गुरु, गुरु हरगोविंद सिंह और माता नानकी देवी थीं। बाबा जी के चार भाई बाबा गुरदित्ता जी, बाबा सूरज मल जी, बाबा अनी राय जी, बाबा अटल राय जी, और एक बहन माता वीरो जी थीं। गुरु तेग बहादुर जी के बचपन का नाम त्यागमल था । ये सभी भाइयों में सबसे छोटे थे ।
गुरु तेग बहादुर जी (guru teg bahadur in hindi) के बचपन का अधिकतम समय अमृतसर में बीता। अमृतसर का गुरुद्वारा गुरु तेग बहादुर का गृह स्थान कहलाता है । बचपन से ही वे बहुत होनहार, शांत स्वभाव, एवं धार्मिक प्रवृत्ति के थे। वे संत स्वरूप, गंभीर, और निर्भीक थे। वे कई घंटों तक सबसे दूर एकांत स्थान में ध्यान में लीन बैठे रहते थे।
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तेग बहादुर जी की शिक्षा और दीक्षा (Teg Bahadur Ji Ki Shiksha Aur Diksha)
5 वर्ष की आयु में इन्होने शास्त्र ज्ञान की प्राप्ति कर घुड़सवारी और शस्त्रविद्या का ज्ञान भी प्राप्त किया था। इनकी शिक्षा-दीक्षा का कार्य इनके पिता श्री हरगोबिंद जी की छत्रछाया में संपन्न हुआ। उसी समय उन्होंने गुरबाणी सहित अन्य धर्म ग्रंथों की भी शिक्षा प्राप्त की। 1634 ई. में वे अपने पिता के साथ करतारपुर रहने चले गए थे। गुरु तेग बहादुर जी अक्सर अपने पिता के साथ शिकार पर जाया करते थे। इन्हे तलवार चलाने में महारथ हासिल थी।
मात्र 14 वर्ष की आयु में गुरु तेग बहादुर जी ने अपने पिता के नेतृत्व में मुग़लों के साथ युद्ध कर जीत हासिल की था। युद्ध में इनके तलवार के जौहर को देखकर, इनके पिता ने प्रसन्न होकर इनका नाम तेग बहादुर रख दिया।
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गुरु तेग बहादुर का जीवन परिचय (Guru Teg Bahadur Essay in Hindi)
अब हम गुरु तेग बहादुर जी के जीवन के बाकी के सभी महत्वपूर्ण पहलुओं के बारे में चर्चा करते हैं:
विवाह और भक्ति (Vivah Aur Bhakti)
1632 ई में 12 साल की उम्र में तेग बहादुर जी का विवाह करतारपुर के श्री लालचंद और माता बिशंकोल जी की सुपुत्री माता गुजरी जी के साथ संपन्न हुआ। इसके बाद उन्होंने अपना ज्यादा से ज्यादा समय एकांत में ध्यान करते हुए बिताना शुरू कर दिया।
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बकाला गाँव की ओर प्रवास (Bakala Gaanv Ki Or Pravas)
गुरु जी की साखी में दर्ज है कि जब छठे सिख गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी को अपना अंतिम समय आता दिखाई दिया तो उन्होंने अपने पोते गुरु हर राय जी को गुरु गद्दी के योग्य समझते हुए 18 मार्च 1644 ई. में सिखों का सातवां गुरु घोषित किया। उस समय माता नानकी जी ने अपने पति से विनम्र प्रार्थना करते हुए कहा कि हे महाराज आपने हमारे पुत्र तेग बहादुर की ओर ध्यान नहीं दिया, वह भी गुरु गद्दी के योग्य है। अंतर्यामी गुरु जी ने तब उन्हें वचन दिया कि मेरे शरीर त्यागने के बाद आप परिवार सहित आपके मायके गांव बकाला में बस जाना। समय आने पर पुत्र तेग बहादुर को गुरु गद्दी प्राप्त होगी।
19 मार्च 1644 ई. को माता नानकी देवी जी परिवार सहित गाँव बकाला में बस गई। कहते हैं सारा दिन श्री गुरु तेग बहादुर जी एकांत स्थान में बैठे ध्यान में मग्न रहते थे। समय का चक्र चलता रहा और गुरु जी ने 20 वर्षों तक बकाला गाँव में निवास किया और साधना में लीन रहे।
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गुरु गद्दी की प्राप्ति (Guru Gaddi Ki Prapti)
सिखों के सातवें गुरु श्री गुरु हर राय जी ने अपना शरीर त्यागने से पहले अपने 5 वर्षीय पुत्र श्री हरकिशन जी को गुरु गद्दी के योग्य समझते हुए 1661 में सिखों का आठवां गुरु घोषित कर दिया। गुरु हरकिशन जी ने मात्र 18 वर्ष की उम्र में हज़ारों लोगों को चेचक के रोग से बचाया था। अंत में वे खुद ही इस रोग से ग्रस्त हो गए थे। सन 1664 ई. में दिल्ली समूह संगत को अपने अंतिम समय में इन्होंने इशारे से बताया कि सिखों के नवें गुरु बाबा बकाला गाँव में हैं।
दूसरी तरह बाबा हर राय जी का बड़ा भाई बाबा धीरमल जो की बहुत पहले से गुरगद्दी प्राप्त करने का प्रयास कर रहा था, उनके पास आदि ग्रन्थ की प्रतिलिपि भी थी। वे बाबा बकाला में गद्दी लगाकर बैठ गए और आदि ग्रन्थ की प्रतिलिपि होने का दावा करते हुए स्वयं को बाबा बकाला वाला गुरु बताने लगे। उनको ऐसा करते देखकर कई अन्य लोग भी लोग ठग के इरादे से अपनी-अपनी गद्दी लगाकर बैठ गए। ये नज़ारा देख सिख संगत दुविधा में पड़ गई कि सच्चा गुरु आखिर कौन है।
इतनी दुविधा के बाद गुरु तेग बहादुर जी को गुरु गद्दी की प्राप्ति कैसे हुई, आइए जानते हैं- एक बार एक व्यापारी “मक्खन शाह” विदेश से माल लादकर समुद्र के रास्ते वापस ला रहा था, तभी समुद्र में भयंकर तूफान आने से उसका जहाज डूबने लगा। वह बहुत घबरा गया और उसने प्रकृति के आगे बेबस होकर गुरु जी का ध्यान किया। मक्खन शाह की प्रार्थना अंतर्यामी गुरु जी ने सुनी तो उन्होंने उसका डूबता जहाज पार लगा दिया। अपनी मनोकामना पूर्ति होने पर वह फ़ौरन गुरु जी से मिलने पंजाब चला गया।
वहाँ उसे पता चला कि सिखों के नौवें गुरु बाबा बकाला में रहते हैं, लेकिन किसी को भी उनका नाम मालूम नहीं था। मक्खन शाह गुरु जी को ढूंढने उस गाँव में पहुंच गया। अपनी चतुराई और कुशल बुद्धि से उसने बहुत सारे ढोंगी गुरुओं में से सच्चे गुरु को पहचान लिया। इस तरह सारे जहान को यह पता चल गया कि तेग बहादुर जी गुरु नानक देव जी की नौवीं जोत हैं। 16 अप्रैल 1664 ई. में गुरु तेग बहादुर जी को सिखों की नौवे गुरु की गद्दी सौंपी गई। सारे सिख सन्तन गुरु जी के दर्शन करने आये और अपने-अपने सामर्थ्य अनुसार गुरु जी को भेंट अर्पण कर माथा टेका।
गुरुद्वारा श्री थड़ा साहिब की स्थापना (Gurudwara Shri Thada Sahib Ki Sthapna)
एक बार मक्खन शाह की प्रार्थना सुन गुरु जी अमृतसर के दरबार साहिब के दर्शन करने पहुँचे। वहाँ के सेवादारों ने उन्हें कोई ढोंगी समझ दरबार साहिब के द्वार बंद कर दिए। इस पर गुरु जी वहाँ से चले गए और बेरी के पेड़ के नीचे जाकर बैठ गए। जिस स्थान पर वो बैठे थे, वो स्थान गुरुद्वारा थड़ा साहिब के नाम से प्रचलित हो गया। शहर से बाहर जहाँ गुरु जी ठहरे थे वह स्थान दमदमा साहिब गुरुद्वारा कहलाया।
कुछ समय मक्खन सिंह की प्रतीक्षा करने के बाद गुरु जी गाँव से चले गए और बाहर एक पीपल के पेड़ के नीचे विश्राम करने रुक गए। वहाँ पर हरिया की माता के आग्रह पर गुरु जी उसके घर गए और वहाँ एक रात विश्राम किया। उस स्थान पर आजकल उनकी स्मृति में गुरुद्वारा कोठा साहिब सुशोभित है। इस स्थान पर प्रतिवर्ष माघ की पूर्णिमा को बहुत बड़े मेले का आयोजन होता है। जब अमृतसर के लोगों और सेवादारों को अपनी भूल का एहसास हुआ तो वे सभी गुरु जी से क्षमा मांगने चले आये।
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आनंदपुर साहिब की स्थापना (Anandpur Sahib Ki Sthapna)
अनदपुर साहिब की स्थापना के पीछे प्रचलित कहानी इस प्रकार है: कीरतपुर गाँव के पास माखोवाल गाँव में सतलुज नदी के समीप गुरु जी ने राजा दीपचंद से 2200 रूपए में ज़मीन खरीदी। 16 जून 1665 ई. में उस जगह पर “चक नानकी” नाम का गाँव बसाया गया। कुछ समय पश्चात इसका नाम बदलकर आनंदपुर साहिब रख दिया गया। तेग बहादुर जी की वजह से 6 महीने के अंदर यह स्थान सिख धर्म का महत्वपूर्ण केंद्र बन गया।
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धार्मिक यात्राएं और सिख धर्म का प्रचार (Dharmik Yatrayen Aur Sikh Dharm Ka Prachar)
गुरु जी तीर्थ यात्राएं करके भूले-भटके लोगों को सही राह दिखाकर उनको सच्चे प्रभु से जोड़ने के काम में लीन हो गए। उन्होंने देश विदेश के गाँव और शहरों में घूमकर सिख धर्म का प्रचार किया। इसी समय उनके पुत्र गुरु गोबिंद सिंह का जन्म हुआ, जो बाद में सिखों के दसवें गुरु कहलाये।
आनंदपुर के बाद गुरु जी ने मालवा, बांगर, आगरा, बनारस, पटना, ढाका, मुंघेर, असम, आदि शहरों की यात्रा कर अंत में अपने परिवार सहित पंजाब में जाकर बस गए।
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गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी (Guru Teg Bahadur Ki Shahidi)
उधर दूसरी ओर मुग़ल राजा औरग़ज़ेब हिन्दू धर्म का नाश करने पर तुला हुआ था। उसने फरमान जारी किया कि कोई भी हिन्दू, राज्य के किसी उच्च स्थान पर नियुक्त नहीं किया जायेगा। औरंगज़ेब का अत्याचार दिन-ब-दिन बढ़ता ही गया। उसने कश्मीरी पंडितों पर भी ज़ुल्म ढाना शुरू कर दिया। वो ज़बरदस्ती लोगों को मुस्लिम बनने पर मजबूर करने लगा और यातनाएं देने लगा। जब कश्मीरी पंडितों को कुछ समझ नहीं आया तो वे गुरु तेग बहादुर जी के पास जा पहुँचे।
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गुरु जी हिन्दुओं को बचाने के उद्देश्य से अपना बलिदान देने हेतु औरग़ज़ेब से मिलने आगरा जा पहुँचे। गुरूजी ने औरंगज़ेब के सामने शर्त रखी कि अगर वो गुरु जी को मुस्लमान बना पाया तो बाकी सब भी ख़ुशी-ख़ुशी मुस्लमान बन जायेंगे। बादशाह औरंगज़ेब ने बहुत ही चालाकी से गुरुजी को बंदी बनाकर दिल्ली में कैद कर दिया। वह गुरु जी को इस्लाम धर्म कबूल करने के लिए मजबूर करने लगा, परन्तु जब वह उन्हें किसी भी तरह से नहीं मना पाया तो गुरु जी और उनके साथियों को शहीद करने का आदेश दे दिया।
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गुरु जी ने चांदनी चौक के बंदी गृह में 57 श्लोक लिखे थे, जो गुरु ग्रन्थ साहिब के अंक 1426 में दर्ज हैं। गुरु जी की साखी में दर्ज है की इन श्लोकों के साथ ही गुरु जी ने 5 पैसे और 1 नारियल अपने सिख साथी के हाथ 1675 ई. में आनंदपुर भेजकर दसवीं गुरु गद्दी अपने सुपुत्र श्री गुरु गोबिंद सिंह जी को सौंप दी थी।
24 नवम्बर 1665 ई. में औरंगज़ेब के जल्लाद ने गुरु जी को सूर्यास्त के बाद चांदनी चौक में शहीद कर दिया। इसके बाद इतनी तेज़ आंधी उठी की मौका देखकर गुरु जी का एक सेवक जो वहाँ मौजूद था, उनका शीश उठाकर आनंदपुर ले गया। जिस स्थान पर उनके शीश को अग्नि भेंट दी गई थी, आज कल वही स्थान गुरुद्वारा शीशगंज कहलाता है। वहीं दूसरी ओर आंधी का फायदा उठाकर गुरु जी का दूसरा सेवक उनका धड़ उठाकर अपने घर ले गया और उन्हें अग्नि भेंट देने के लिए पूरे घर में आग लगा दी। गुरु जी की याद में आज दिल्ली के उस स्थान पर गुरुद्वारा रकाब गंज साहिब सुशोभित है।
गुरु जी ने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपना बलिदान देकर यह साबित कर दिया कि सिक्खी जात-पात, रंग, नेसल, भेदभाव से कहीं ऊपर है। उन्होंने हिन्द की चादर बनकर एक अधर्मी क्रूर शासक को उसकी औकात से परिचित कराया।
गुरु तेग बहादुर पर निबंध (guru teg bahadur essay in hindi) के माध्यम से हमने तेग बहादुर जी के जीवन के सारे महत्वपूर्ण पहलुओं को उजागर किया है । आशा है कि हमारा यह लेख आपको पसंद आया होगा और आप तेग बहादुर जी के जीवन से कुछ न कुछ सीख अवश्य ग्रहण करेंगे ।
Frequently Asked Questions
Question 1: गुरु तेग बहादुर के त्याग और बलिदान के लिए उन्हें क्या कहा जाता है?
गुरु तेग बहादुर के त्याग और बलिदान के लिए उन्हें “हिन्द की चादर” कहा जाता है ।
Question 2 : तेग बहादुर जी की शहीदी दिवस कब मनाया जाता है
हर साल देश भर में 24 नवंबर को तेग बहादुर जी का शहीदी दिवस या फिर शहादत दिवस मनाया जाता है ।
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