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13 Verses From Bhagavad Gita On Karma In Hindi – The Secret Of Life Is Hidden In Them

Bhagavad Gita Karma Quotes In Hindi

महाभारत युद्ध के समय जब अर्जुन अपने सामने अपने परिवार को शत्रु की तरह देखकर घबरा जाते हैं तब श्री कृष्ण ने उन्हें कर्म और धर्म पर ज्ञान दिया जिसे आप हम और आप भागवत गीता के नाम से जानते हैं। श्री कृष्ण ने गीता के श्लोक (bhagavad gita karma quotes in hindi) द्वारा अर्जुन को कर्म क्या होता है, ये समझाया था। आज भी कर्म पर गीता के श्लोक (bhagavad gita karma quotes in hindi) लोगों को प्रेरित करते हैं।

भागवत गीता में कुल 700 श्लोक और 18 विशाल अध्याय हैं जिनमें कर्म से संबंधित ज्ञान वर्णित हैं। कहते हैं जो भी रोज भागवत गीता का पाठ करता है वो जीवन  में कभी भी किसी भी राह में अटकता नहीं है क्योंकि उसकी हर उलझन का उपाय उसे भागवत गीता में मिल जाता है। आज की पोस्ट में हम आपको कुछ महत्वपूर्ण और सच्चे ज्ञान से रूबरू करवाएंगे, इसलिए पोस्ट के अंत तक बने रहे।

हम आपको सिर्फ कर्म पर गीता के श्लोक (bhagavad gita karma quotes in hindi) ही नहीं बताएंगे बल्कि उनका अर्थ भी बताएंगे। चलिए शुरू करते हैं कर्म पर गीता के श्लोक (bhagavad gita karma quotes in hindi)। सभी श्लोकों को ध्यान से और श्रद्धा से पढ़कर इनसे प्रेरणा लें।

 

कर्म पर गीता के श्लोक (Bhagavad Gita Karma Quotes In Hindi)

1) कर्म पर गीता का पहला श्लोक

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कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥

अर्थ – ये वो श्लोक है जो आज भी लोगों को प्रेरित करने की क्षमता रखता है। इस श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं हे कौन्तेय, तुम्हारा अधिकार सिर्फ इतना है कि तुम अपना कर्म करो। उसके फल पर तुम्हारा अधिकार नहीं है। तुम्हें तुम्हारे कर्म का क्या फल देना है ये मेरे इच्छा पर निर्भर है। तुम्हें फल देना मेरा अधिकार है, इसलिए जिस चीज पर तुम्हारा अधिकार ही नहीं है उसके बारे में सोचने की जरूरत नहीं है। तुम सिर्फ अपना कर्म करो और फल की चिंता मत करो।

आइए जानें कर्म पर गीता के अन्य प्रसिद्ध श्लोक और उनका अर्थ।(Bhagavad Gita Karma Quotes In Hindi)

 

2) कर्म पर गीता का दूसरा श्लोक

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हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्।

तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥

अर्थ – इस श्लोक में श्री कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि तुम अपना कर्म करो। इस युद्ध में यदि तुम युद्ध करते करते वीरगति को प्राप्त हुए तो तुम्हें अपने कर्म को करने के परिणामस्वरूप स्वर्ग प्राप्त होगा और यदि तुम इस युद्ध में कौरवों से जीत हासिल करते हो तो तुम इस धरती में सुख और राज्य हासिल करोगे। हे कौन्तेय। उठो और संकल्प लेकर निश्चय होकर अपनी पूरी ताकत से युद्ध करो।

आजकल के जीवन में इसे देखा जाए तो कृष्ण समझा रहे हैं कि व्यक्ति का कर्म करना कितना जरूरी है। कर्म करने पर ही व्यक्ति को सफलता प्राप्त होती है। यदि व्यक्ति अपनी पूरी ताकत के साथ और पूरी शिद्धत से अपनी मंज़िल पाने के लिए कर्म करता है वो निश्चय ही अपने विजयी होगा।

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3) कर्म पर गीता का तीसरा श्लोक

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न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।

कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥

अर्थ – इस श्लोक में बताया जा रहा है कि इस धरती पर ऐसा कोई नहीं जो हर पल कोई न कोई कर्म न कर रहा हो। प्रकृति तीनों गुणों के आधार पर प्राणी को अपना कर्म करने के लिए विवश करती है।

आज कुछ लोग ये मानते हैं कि कर्म करने का अर्थ है सिर्फ व्यापार या नौकरी वाला कर्म, न कि रोज़मर्रा के काम जैसे खाना, पीना, सोना, जागना, सोचना आदि, इसलिए जब लोग अपना व्यापार या नौकरी छोड़ देते हैं तो उन्हें लगता है वो अब कोई कर्म नहीं कर रहे। श्री कृष्ण कहते हैं कि व्यक्ति अपने मन, अपने शरीर और अपनी वाणी से जो भी कहे या करें वो सब कर्म के समान ही हैं।

वो अर्जुन से कह रहे हैं कि व्यक्ति कभी भी एक पल के लिए भी पूर्ण रूप से निष्क्रिय नहीं हो सकता है। यदि कोई सिर्फ बैठा है तो वो भी एक क्रिया कर रहा है। यदि को सो रहा है तो उसका मन सपने देखने की क्रिया करने में व्यस्त है। जब व्यक्ति गहरी नींद में सो जाता है तब भी उसका दिल और उसके अंग काम कर रहे होते हैं। इन सभी बातों से ये बात स्पष्ट है मनुष्य पूर्णतया कर्महीन कभी नहीं होता। उनकी बुद्धि, उसका मन, उसका शरीर कार्य करने के लिए मजबूर हैं।

आइए जानें कर्म पर गीता के अन्य प्रसिद्ध श्लोक और उनका अर्थ।(Bhagavad Gita Karma Quotes In Hindi)

 

4) कर्म पर गीता का चौथा श्लोक

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न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।

न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।

अर्थ – इस श्लोक में श्री कृष्ण कह रहे हैं कि मनुष्य अपने कर्म का आरंभ न करके निष्कर्म नहीं हो सकता है और न ही अपने कर्मों का त्याग करने से व्यक्ति को कोई सिद्धि प्राप्त होगी।

इस श्लोक का अर्थ है कि व्यक्ति यदि अपने कर्मों के प्रति उदासीनता दिखाता है तो भी कार्मिक प्रतिक्रियाओं से छुटकारा नहीं मिलता है। वो निरंतर ही उस कर्म का फल प्राप्त होने के बारे में चिंतन करता रहता है। ये जो मानसिक कर्म व्यक्ति कर रहा है वो भी कर्म ही है। सच्चा कर्म योगी वही है तो बिना फल की चिंता किए कर्म करता जाता है। उसे इसके लिए अपने बौद्धिक ज्ञान को बढ़ाना होगा।

इसमें श्री कृष्ण समझाना चाहते हैं कि व्यक्ति अपने कर्मों से सन्यास लेकर सन्यासी का रूप तो धर लेगा पर उसे ज्ञान प्राप्त नहीं होगा। अशुद्ध मन से कभी भी वास्तविक ज्ञान नहीं मिलता।मन की प्रवृति होती है पुरानी बातों और विचारों के बारे में सोचना। ये करते करते नए विचार मन में आने लगते हैं और फिर धीरे धीरे मन में तनाव, चिंता, गुस्सा, भय आ जाता है। वो सांसारिक भवसागर से भौतिक रूप से सन्यास लेता है परन्तु उसके अंतःकरण में शुद्धता नहीं होती है और वो वास्तविक ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता है। सांख्य योग और कर्म योग दोनों के लिए ज्ञान और कर्म दोनों जरूरी हैं।

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5) कर्म पर गीता का पाचवा श्लोक

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कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।

अर्थ – इस श्लोक अनुसार व्यक्ति अपने मन और अपनी सभी इन्द्रियों को ज़बरदस्ती अपने नियंत्रण में करने की कोशिश करता है। उसे लगता है उसकी इन्द्रियां उसके बस में हैं लेकिन वास्तव में उसका मन सभी पुरानी बातों के बारे में सोचता रहा है। इसे संन्यास नहीं कहते। ऐसे व्यक्ति सन्यासी न होकर मिथ्या चारी होते हैं।

इसका अर्थ है व्यक्ति को यदि संन्यास लेना है तो सभी इन्द्रियों को सम्पूर्ण तरीके से बस में करना सीखना होगा और यदि वो बिना ऐसा कर लेता है तभी कह सकते हैं कि उसकी इन्द्रियां उसके बस में हैं।

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6) कर्म पर गीता का छटा श्लोक

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यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।

कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥

अर्थ – इस श्लोक में श्री कृष्ण कह रहे हैं कि हे अर्जुन जो व्यक्ति मन से अपनी सभी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखने में कामयाब होता है और जो बिना किसी आसक्ति के सभी कर्मेन्द्रियों से कर्म करता है वो ही वास्तव में श्रेष्ठ है। वो ही श्रेष्ठ हैं जो अपने सभी कर्म कर बिना किसी फल की इच्छा के करता है।

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7) कर्म पर गीता का सातवां श्लोक

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नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।

शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः।।

अर्थ – इस श्लोक में कृष्ण कह रहे हैं कि हे अर्जुन तुम सभी निर्धारित और निश्चित वैदिक काम करते जाओ। व्यक्ति का निष्क्रिय बने रहने से कई गुना अच्छा है उसका कर्म करना। अपने कर्मों का त्याग करने कोई भी व्यक्ति अपना भरण पोषण नहीं कर सकता है। व्यक्ति को कर्म करना ही चाहिए।

व्यक्ति यदि सोचे कि वो बिना काम करें रह सकता है तो ऐसा नहीं है क्योंकि उसे जिंदा रहने के लिए और अपना पेट पालने के लिए कर्म करना ही होगा।

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8) कर्म पर गीता का आठवाँ श्लोक

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नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।

न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।

अर्थ – इस श्लोक में कृष्णा कह रहे हैं कि जो व्यक्ति भगवान की सेवा में लीन है और अपनी आध्यात्मिक क्रियाओं जैसे पूजा, ध्यान, गुरु सेवा और कीर्तन में व्यस्त हैं उनके लिए कर्म करने का और कर्म न करने का कोई प्रयोजन नहीं होता है। ये लोग अपनी आवश्यकताओं के लिए किसी भी भी निर्भर नहीं होते हैं। इन लोगों के लिए वर्णाश्रम धर्म के अंतर्गत आने वाले कर्तव्यों और कर्म का पालन करना जरूरी नहीं होता है।

जो व्यक्ति अपना मन भगवान के चरणों में लगा लेता है उसके लिए काम करना सिर्फ उसका कर्म है, फल क्या होगा, मिलेगा या नहीं इस सबसे उनको कोई मतलब नहीं होता है।

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9) कर्म पर गीता का नौवाँ श्लोक

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तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।

असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।

अर्थ – इस श्लोक में कृष्ण समझा रहे हैं आसक्ति और मोह के बिना कर्तव्य और कर्मों को करते रहे। ऐसा इसलिए करें क्योंकि आसक्ति में और मोह के बिना यदि कोई व्यक्ति कर्म करता है तो उसे ईश्वर प्राप्त होता है। क्योंकि जब व्यक्ति का लक्ष्य ईश्वर के चरणों में मन लगाने का होता है तो उसके लिए मोह माया कुछ नहीं होता। वो  बस अपना भक्ति स्वरुप कर्मों का निर्वाह करता जाता है।

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10) कर्म पर गीता का दसवां श्लोक

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न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।

नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।

अर्थ – अर्जुन हे पार्थ! समस्त तीनों लोकों में मेरे लिए कोई कर्म निश्चित नहीं है, न ही मुझे किसी पदार्थ का अभाव है और न ही मुझ में कुछ पाने की अपेक्षा है फिर भी मैं निश्चित कर्म करता हूँ।

इस श्लोक में श्री कृष्ण जी अर्जुन को समझाते हुए कह रहे हैं कि मेरे लिए इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड में कोई भी कर्म करना जरूरी नहीं है और न ही मुझे किसी भी चीज का अभाव नहीं है। मुझे किसी भी सुख और चीज को पाने की कोई अपेक्षा या इच्छा है। इस सबके बावजूद में मैं रोज़ अपने निश्चित कार्य करता हूँ। इस श्लोक से ये पता चलता है कि भगवान के हाथ में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है फिर भी वो कर्म करते हैं। भगवान होकर भी वो कर्म कर रहे हैं तो हम मनुष्य को भी अपने कर्म जरूर करने चाहिए।

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11) कर्म पर गीता का ग्यारहवाँ श्लोक 

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यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यन्द्रितः।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।

अर्थ – इस श्लोक के जरिए श्री कृष्ण कह रहे हैं, हे अर्जुन यदि मैं अपने कर्म करना छोड़ दूँ तो कदाचित बहुत हानि होगी क्योंकि मेरे मार्ग का अनुसरण करके ही मनुष्य कर्म करते हैं। यदि मैं अपने कर्म करना छोड़ दूँ तो सभी  नष्ट और भ्रष्ट हो जाएंगे।

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12) कर्म पर गीता का बारहवाँ श्लोक

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न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।

जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्।।

अर्थ – इस श्लोक में श्री कृष्ण कहना चाहते हैं कि ज्ञानी पुरुष अपने कर्मों से उन आसक्ति वाले अज्ञानी लोगों के मन और बुद्धि में भ्रम पैदा न करें बल्कि भक्ति से युक्त होकर कर्म करें और आसक्ति वाले लोग से भी वैसे ही कर्म करवाए। जो महापुरुष हैं उन्हें चाहिए वो ऐसे कर्म करें कि लोग उनसे प्रेरित होकर उनके जैसे ही सद्कर्म करें।

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13) कर्म पर गीता का तेरवा श्लोक

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मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।

निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।

अर्थ – श्री कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि तुम अपने सभी कर्म मुझे अर्पित कर दो और तुम मेरा परमात्मा के रूप में ध्यान करो और स्वार्थ और बिना किसी कामना और इच्छा के अपने मन और मस्तिष्क में बसे दुखों को छोड़कर युद्ध करो।

व्यक्ति जब कर्म करता है तो उसे बिना किसी स्वार्थ के करते जाना चाहिए।

 

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